Poem on Independence Day in Hindi

Independence Day Quotes in Hindi
Independence Day Quotes in Hindi

स्वतंत्रता दिवस, एक ऐसा अवसर है जिस पर हम अपने राष्ट्र के निर्माताओं के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। प्रतिवर्ष 15 अगस्त को हम स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ याद करते हैं हमारे वीर शहीदों, स्वतंत्रता सेनानियों की आत्मबलिदान की शहादत। नीचे प्रस्तुत है एक सुंदर स्वतंत्रता दिवस पर हिंदी कविता (Poem on Independence Day in Hindi)।

10+ Poem on Independence Day in Hindi

Poem 1

जो बरसों तक सड़े जेल में, उनकी याद करें।

जो फाँसी पर चढ़े खेल में, उनकी याद करें।

याद करें काला पानी को,

अंग्रेजों की मनमानी को,

कोल्हू में जुट तेल पेरते,

सावरकर से बलिदानी को।

याद करें बहरे शासन को,

बम से थर्राते आसन को,

भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू

के आत्मोत्सर्ग पावन को।

अन्यायी से लड़े,

दया की मत फरियाद करें।

उनकी याद करें।

बलिदानों की बेला आई,

लोकतंत्र दे रहा दुहाई,

स्वाभिमान से वही जियेगा

जिससे कीमत गई चुकाई

मुक्ति माँगती शक्ति संगठित,

युक्ति सुसंगत, भक्ति अकम्पित,

कृति तेजस्वी, घृति हिमगिरि-सी

मुक्ति माँगती गति अप्रतिहत।

अंतिम विजय सुनिश्चित, पथ में

क्यों अवसाद करें?

उनकी याद करें।

-अटल बिहारी वाजपेयी

Poem 2

राजपथ पर भीड़, जनपथ पड़ा सूना,

पलटनों का मार्च, होता शोर दूना।

शोर से डूबे हुए स्वाधीनता के स्वर,

रुद्ध वाणी, लेखनी जड़, कसमसाता डर।

भयातांकित भीड़, जन अधिकार वंचित,

बन्द न्याय कपाट, सत्ता अमर्यादित।

लोक का क्षय, व्यक्ति का जयकार होता,

स्वतंत्रता का स्वप्न रावी तीर रोता।

रक्त के आँसू बहाने को विवश गणतंत्र,

राजमद ने रौंद डाले मुक्ति के शुभ मंत्र।

क्या इसी दिन के लिए पूर्वज हुए बलिदान?

पीढ़ियां जूझीं, सदियों चला अग्नि-स्नान?

स्वतंत्रता के दूसरे संघर्ष का घननाद,

होलिका आपात् की फिर माँगती प्रह्लाद।

अमर है गणतंत्र, कारा के खुलेंगे द्वार,

पुत्र अमृत के, न विष से मान सकते हार।

Poem 3

पन्द्रह अगस्त का दिन कहता – आज़ादी अभी अधूरी है।

सपने सच होने बाक़ी हैं, राखी की शपथ न पूरी है॥

जिनकी लाशों पर पग धर कर आजादी भारत में आई।

वे अब तक हैं खानाबदोश ग़म की काली बदली छाई॥

कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आंधी-पानी सहते हैं।

उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं॥

हिन्दू के नाते उनका दुख सुनते यदि तुम्हें लाज आती।

तो सीमा के उस पार चलो सभ्यता जहाँ कुचली जाती॥

इंसान जहाँ बेचा जाता, ईमान ख़रीदा जाता है।

इस्लाम सिसकियाँ भरता है,डालर मन में मुस्काता है॥

भूखों को गोली नंगों को हथियार पिन्हाए जाते हैं।

सूखे कण्ठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं॥

लाहौर, कराची, ढाका पर मातम की है काली छाया।

पख़्तूनों पर, गिलगित पर है ग़मगीन ग़ुलामी का साया॥

बस इसीलिए तो कहता हूँ आज़ादी अभी अधूरी है।

कैसे उल्लास मनाऊँ मैं? थोड़े दिन की मजबूरी है॥

दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुनः अखंड बनाएँगे।

गिलगित से गारो पर्वत तक आजादी पर्व मनाएँगे॥

उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसें बलिदान करें।

जो पाया उसमें खो न जाएँ, जो खोया उसका ध्यान करें॥

-अटल बिहारी वाजपेयी

Poem 4

पन्द्रह अगस्त का दिन कहता – आज़ादी अभी अधूरी है।

सपने सच होने बाक़ी हैं, राखी की शपथ न पूरी है॥

जिनकी लाशों पर पग धर कर आजादी भारत में आई।

वे अब तक हैं खानाबदोश ग़म की काली बदली छाई॥

कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आंधी-पानी सहते हैं।

उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं॥

हिन्दू के नाते उनका दुख सुनते यदि तुम्हें लाज आती।

तो सीमा के उस पार चलो सभ्यता जहाँ कुचली जाती॥

इंसान जहाँ बेचा जाता, ईमान ख़रीदा जाता है।

इस्लाम सिसकियाँ भरता है,डालर मन में मुस्काता है॥

भूखों को गोली नंगों को हथियार पिन्हाए जाते हैं।

सूखे कण्ठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं॥

लाहौर, कराची, ढाका पर मातम की है काली छाया।

पख़्तूनों पर, गिलगित पर है ग़मगीन ग़ुलामी का साया॥

बस इसीलिए तो कहता हूँ आज़ादी अभी अधूरी है।

कैसे उल्लास मनाऊँ मैं? थोड़े दिन की मजबूरी है॥

दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुनः अखंड बनाएँगे।

गिलगित से गारो पर्वत तक आजादी पर्व मनाएँगे॥

उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसें बलिदान करें।

जो पाया उसमें खो न जाएँ, जो खोया उसका ध्यान करें॥

-अटल बिहारी वाजपेयी

Poem 5

आ, स्वतंत्र प्यारे स्वदेश आ,

स्वागत करती हूँ तेरा।

तुझे देखकर आज हो रहा,

दूना प्रमुदित मन मेरा॥

आ, उस बालक के समान

जो है गुरुता का अधिकारी।

आ, उस युवक-वीर सा जिसको

विपदाएं ही हैं प्यारी॥

आ, उस सेवक के समान तू

विनय-शील अनुगामी सा।

अथवा आ तू युद्ध-क्षेत्र में

कीर्ति-ध्वजा का स्वामी सा॥

आशा की सूखी लतिकाएं

तुझको पा, फिर लहराईं।

अत्याचारी की कृतियों को

निर्भयता से दरसाईं॥

-सुभद्रा कुमारी चौहान

Poem 6

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती

स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती

अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो,

प्रशस्त पुण्य पंथ हैं – बढ़े चलो बढ़े चलो।

असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी।

सपूत मातृभूमि के रुको न शूर साहसी।

अराति सैन्य सिंधु में – सुबाड़वाग्नि से जलो,

प्रवीर हो जयी बनो – बढ़े चलो बढ़े चलो।

-जयशंकर प्रसाद

Poem 7

अरुण यह मधुमय देश हमारा
अरुण यह मधुमय देश हमारा।

जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।।

सरल तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरुशिखा मनोहर।

छिटका जीवन हरियाली पर, मंगल कुंकुम सारा।।

लघु सुरधनु से पंख पसारे, शीतल मलय समीर सहारे।

उड़ते खग जिस ओर मुँह किए, समझ नीड़ निज प्यारा।।

बरसाती आँखों के बादल, बनते जहाँ भरे करुणा जल।

लहरें टकरातीं अनन्त की, पाकर जहाँ किनारा।।

हेम कुम्भ ले उषा सवेरे, भरती ढुलकाती सुख मेरे।

मंदिर ऊँघते रहते जब, जगकर रजनी भर तारा।।

-जयशंकर प्रसाद

Poem 8

जियो जियो अय हिन्दुस्तान
जाग रहे हम वीर जवान,

जियो जियो अय हिन्दुस्तान !

हम प्रभात की नई किरण हैं, हम दिन के आलोक नवल,

हम नवीन भारत के सैनिक, धीर,वीर,गंभीर, अचल ।

हम प्रहरी उँचे हिमाद्रि के, सुरभि स्वर्ग की लेते हैं ।

हम हैं शान्तिदूत धरणी के, छाँह सभी को देते हैं।

वीर-प्रसू माँ की आँखों के हम नवीन उजियाले हैं

गंगा, यमुना, हिन्द महासागर के हम रखवाले हैं।

तन मन धन तुम पर कुर्बान,

जियो जियो अय हिन्दुस्तान !

हम सपूत उनके जो नर थे अनल और मधु मिश्रण,

जिसमें नर का तेज प्रखर था, भीतर था नारी का मन !

एक नयन संजीवन जिनका, एक नयन था हालाहल,

जितना कठिन खड्ग था कर में उतना ही अंतर कोमल।

थर-थर तीनों लोक काँपते थे जिनकी ललकारों पर,

स्वर्ग नाचता था रण में जिनकी पवित्र तलवारों पर

हम उन वीरों की सन्तान ,

जियो जियो अय हिन्दुस्तान !

हम शकारि विक्रमादित्य हैं अरिदल को दलनेवाले,

रण में ज़मीं नहीं, दुश्मन की लाशों पर चलनेंवाले।

हम अर्जुन, हम भीम, शान्ति के लिये जगत में जीते हैं

मगर, शत्रु हठ करे अगर तो, लहू वक्ष का पीते हैं।

हम हैं शिवा-प्रताप रोटियाँ भले घास की खाएंगे,

मगर, किसी ज़ुल्मी के आगे मस्तक नहीं झुकायेंगे।

देंगे जान , नहीं ईमान,

जियो जियो अय हिन्दुस्तान।

जियो, जियो अय देश! कि पहरे पर ही जगे हुए हैं हम।

वन, पर्वत, हर तरफ़ चौकसी में ही लगे हुए हैं हम।

हिन्द-सिन्धु की कसम, कौन इस पर जहाज ला सकता ।

सरहद के भीतर कोई दुश्मन कैसे आ सकता है ?

पर की हम कुछ नहीं चाहते, अपनी किन्तु बचायेंगे,

जिसकी उँगली उठी उसे हम यमपुर को पहुँचायेंगे।

हम प्रहरी यमराज समान

जियो जियो अय हिन्दुस्तान!

-रामधारी सिंह ‘दिनकर’

Poem 9

(1942)

मुझको है विश्वास किसी दिन

घायल हिंदुस्तान उठेगा।

दबी हुई दुबकी बैठी हैं

कलरवकारी चार दिशाएँ,

ठगी हुई, ठिठकी-सी लगतीं

नभ की चिर गतिमान हवाएँ,

अंबर के आनन के ऊपर

एक मुर्दनी-सी छाई है,

एक उदासी में डूबी हैं

तृण-तरुवर-पल्लव-लतिकाएँ;

आंधी के पहले देखा है

कभी प्रकृति का निश्चल चेहरा?

इस निश्चलता के अंदर से

ही भीषण तूफान उठेगा।

मुझको है विश्वास किसी दिन

घायल हिंदुस्तान उठेगा।

नौ अगस्त!

नौ अगस्त!

-हरिवंशराय बच्चन

घायल हिन्दुस्तान
(1942)

मुझको है विश्वास किसी दिन

घायल हिंदुस्तान उठेगा।

दबी हुई दुबकी बैठी हैं

कलरवकारी चार दिशाएँ,

ठगी हुई, ठिठकी-सी लगतीं

नभ की चिर गतिमान हवाएँ,

अंबर के आनन के ऊपर

एक मुर्दनी-सी छाई है,

एक उदासी में डूबी हैं

तृण-तरुवर-पल्लव-लतिकाएँ;

आंधी के पहले देखा है

कभी प्रकृति का निश्चल चेहरा?

इस निश्चलता के अंदर से

ही भीषण तूफान उठेगा।

मुझको है विश्वास किसी दिन

घायल हिंदुस्तान उठेगा।

-हरिवंशराय बच्चन

Poem 10

मैथिलीशरण गुप्त-भारत का झण्डा
भारत का झण्डा फहरै ।

छोर मुक्ति-पट का क्षोणी पर,

छाया काके छहरै ।।

मुक्त गगन में, मुक्त पवन में,

इसको ऊँचा उड़ने दो ।

पुण्य-भूमि के गत गौरव का,

जुड़ने दो, जी जुड़ने दो ।

मान-मानसर का शतदल यह,

लहर लहर का लहरै ।

भारत का झण्डा फहरै ।।

रक्तपात पर अड़ा नहीं यह,

दया-दण्ड में जड़ा हुआ ।

खड़ा नहीं पशु-बल के ऊपर,

आत्म-शक्ति से बड़ा हुआ ।

इसको छोड़ कहाँ वह सच्ची,

विजय-वीरता ठहरै ।

भारत का झण्डा फहरै ।।

इसके नीचे अखिल जगत का,

होता है अद्भुत आह्वान !

कब है स्वार्थ मूल में इसके ?

है बस, त्याग और बलिदान ।।

ईर्षा, द्वेष, दम्भ; हिंसा का,

हदय हार कर हहरै ।

भारत का झण्डा फहरै ।।

पूज्य पुनीत मातृ-मन्दिर का,

झण्डा क्या झुक सकता है?

क्या मिथ्या भय देख सामने,

सत्याग्रह रुक सकता है?

घहरै दिग-दिगन्त में अपनी

विजय दुन्दभी घहरै ।

भारत का झण्डा फहरै ।।

-मैथिली शरण गुप्त

ध्वज गीत
विजयनी तेरी पताका!

विजयनी तेरी पताका!

तू नहीं है वस्त्र तू तो

मातृ भू का ह्रदय ही है,

प्रेममय है नित्य तू

हमको सदा देती अभय है,

कर्म का दिन भी सदा

विश्राम की भी शान्त राका।

विजयनी तेरी पताका!

तू उडे तो रुक नहीं

सकता हमारा विजय रथ है

मुक्ति ही तेरी हमारे

लक्ष्य का आलोक पथ है

आँधियों से मिटा कब

तूने अमिट जो चित्र आँका!

विजयनी तेरी पताका!

छाँह में तेरी मिले शिव

और वह कन्याकुमारी,

निकट आ जाती पुरी के

द्वारिका नगरी हमारी,

पंचनद से मिल रहा है

आज तो बंगाल बाँका!

विजयनी तेरी पताका!

-महादेवी वर्मा

Poem 11

‘अभी और है कितनी दूर तुम्हारा प्यारा देश?’–

कभी पूछता हूँ तो तुम हँसती हो

प्रिय, सँभालती हुई कपोलों पर के कुंचित केश!

मुझे चढ़ाया बाँह पकड़ अपनी सुन्दर नौका पर,

फिर समझ न पाया, मधुर सुनाया कैसा वह संगीत

सहज-कमनीय-कण्ठ से गाकर!

मिलन-मुखर उस सोने के संगीत राज्य में

मैं विहार करता था,–

मेरा जीवन-श्रम हरता था;

मीठी थपकी क्षुब्ध हृदय में तान-तरंग लगाती

मुझे गोद पर ललित कल्पना की वह कभी झुलाती,

कभी जगाती;

जगकर पूछा, कहो कहाँ मैं आया?

हँसते हुए दूसरा ही गाना तब तुमने गाया!

भला बताओ क्यों केवल हँसती हो?–

क्यों गाती हो?

धीरे धीरे किस विदेश की ओर लिये जाती हो?

(२)

झाँका खिड़की खोल तुम्हारी छोटी सी नौका पर,

व्याकुल थीं निस्सीम सिन्धु की ताल-तरंगें

गीत तुम्हारा सुनकर;

विकल हॄदय यह हुआ और जब पूछा मैंने

पकड़ तुम्हारे स्त्रस्त वस्त्र का छोर,

मौन इशारा किया उठा कर उँगली तुमने

धँसते पश्चिम सान्ध्य गगन में पीत तपन की ओर।

क्या वही तुम्हारा देश

उर्मि-मुखर इस सागर के उस पार–

कनक-किरण से छाया अस्तांचल का पश्चिम द्वार?

बताओ–वही?–जहाँ सागर के उस श्मशान में

आदिकाल से लेकर प्रतिदिवसावसान में

जलती प्रखर दिवाकर की वह एक चिता है,

और उधर फिर क्या है?

झुलसाता जल तरल अनल,

गलकर गिरता सा अम्बरतल,

है प्लावित कर जग को असीम रोदन लहराता;

खड़ी दिग्वधू, नयनों में दुख की है गाथा;

प्रबल वायु भरती है एक अधीर श्वास,

है करता अनय प्रलय का सा भर जलोच्छ्वास,

यह चारों ओर घोर संशयमय क्या होता है?

क्यों सारा संसार आज इतना रोता है?

जहाँ हो गया इस रोदन का शेष,

क्यों सखि, क्या है वहीं तुम्हारा देश?

-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

आइए, इस स्वतंत्रता दिवस पर अपने वीर शहीदों और स्वतंत्रता सेनानियों को नमन करें, और उनके बलिदान को याद करके मनाएं यह समर्पित अवसर। उनके स्थायी योगदान को महसूस करते हुए, स्वतंत्रता दिवस को अपने आत्मबलिदान और देश प्रेम की सामाजिक प्रतिबद्धता के साथ मनायें। जय हिंद!

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